खोजना तेरे शहर में
मैं कुछ खोकर आया हूँ
नींद की डिबिया लापता है
और मन भी गंवाकर आया हूँ
भला भला सा चला था घर से
सब कुछ ठीक ठिकाने था
पैरों से मैं चलता था और
सर से सोंचा करता था
तेरे शहर के जानिब चला जैसे ही
मौसम ने भी बदला चेहरा
धुप थोड़ी सी नरमाई और
मेघों ने मुझको आ घेरा
फिर मंद पवन के सहज इशारे से
कुछ बूंदे पेशानी पे टपकी
मानो मुझको शुचित करने को
मुझपे गंगाजल हो छिड़का
लेकर चोखा रोम रोम मैं
पंहुचा तेरे शहर के द्वार
कुछ ने मेरे दिल को थामा
कुछ ने लफ्जों से तेरे नक्श रचे
तुझसे मिला तो ऐसा उलझा
तेरे नैनों के भरम में
खोया सबकुछ पर पाया वो जो
ना मिलता किसी दैर-ओ-हरम में
यूँ तो नियति मेरी ठीक ही थी मगर
कितनी ठीक ये तब मालूम हुआ
जब मेरे नसीब में तू आई और
मेरा नसीब लोगों की मुराद बन गया
No comments:
Post a Comment